छतीसगढ़ में दंतेशवरी मंदिर ; दंतेवाड़ा शहर में स्थितद्ध, बस्तर क्षेत्र के आदिवासियों के लिए सबसे सम्मानित स्थान में से एक है, इस तथ्य का सबसे अच्छा उदारण हैं कि आदिवासी प्राचीन काल से सनातन धर्म का एक अभिन्न अंग थे । देवी दंतेशवरी, जो छतीसगढ़ के सभी जनजातियों की पूजनीय देवता हैं, यह शक्तिपीठों में से एक है और इसे 14 वीं शताब्दी में बनाया गया था माना जाता है कि सती देवी का एक दांत यहां गिरा था, इसलिए इसका नाम दंतेवरी / दंतेवाड़ा पड़ा । ऐतिहासिक रूप से, बस्तर के केंद्र में, दंतेवाड़ा, एक विशाल अभेद्य जंगल के बीच में था, जिसे ‘दंडकारण्य’ के नाम से जाना जाता था, जो मध्य भारत में फैला था और जहाँ भगवान राम ने अपने 14 साल ‘वनवास’ के बिताए थे ।
- फागुन मडई ; शायद सबसे बड़ा आदिवासी त्योहार, 700 साल से अधिक पुरानाद्ध, जो मंदिर में होली से 9 दिन पहले मनाया जाता है, यह आदिवासी विश्वास और संस्कृति का प्रदर्शन है । यह त्यौहार बिखरे हुए आदिवासी समुदायों को एकजुट करने के लिए शुरु किया गया था, जो ज्यादातर एक-दूसरे से कटे हुए थे । क्षेत्र के सभी आदिवासी देवी/देवता को इस अवसर पर लाया जाता है और जुलूस निकाला जाता है ।
दंतेवाड़ा के अलावा, जगदलपुर के
राज महल में एक दंतेशवरी मंदिर भी मौजूद है । दशहरे के दौरान, दंतेवरी की पालकी दंतेवाड़ा से जगदलपुर लायी जाती है। त्यौहार को बस्तर दशहरे के रूप में जाना जाता है जो 75 दिनों तक चलता है; अगस्त के आसपास शुरू और अक्टूबर में समाप्त और विभिन्न देवियों ; दंतेशवरी की बहनेंद्ध और देवो ;जो विभिन्न आदिवासी समुदायों के पैतृक देवता हैं के साथ आते हैं । अतीत में, जब परिवहन के साधन अपर्याप्त थे, आदिवासी लोगों ने अपने-अपने गाँवों में मातगुड़ी, पूजा स्थल बनाए और देवी दंतेवरी के विभिन्न अवतारों की पूजा शुरु की, जिन्हें बहनों के नाम से जाता जाता है हजारों आदिवासी ;गोंडी, हलवास, पारजस, मारीस, मुरियास, सिंहबास, ध्रुव, आदि देवी को श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा होते है ।